गाँधीजी जानते थे कि देश पूरी तरह तभी स्वतंत्र हो सकता है, जब वह मानसिक रूप से भी गुलामी को उखाड़ फेंके । इसके लिए भारतवासियों को राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रयोग अपने दैनिक जीवन में करना बहुत आवश्यक है । गाँधीजी खुद भी इसका पालन करते थे और देशवासियों से भी कहते थे |
उन्होंने कहा था : ‘‘अंग्रेजी के ज्ञान की आवश्यकता के भ्रम ने हमें गुलाम बना दिया है । यह मेरा निश्चित मत है कि अंग्रेजी शिक्षा ने शिक्षित भारतीयों को निर्बल और शक्तिहीन बना दिया है । अंग्रेजी सीखने के लिए हमारा जो विचारहीन मोह है, उससे खुद मुक्त होकर और समाज को मुक्त करके हम भारतीय जनता की बड़ी-से-बड़ी सेवा कर सकते हैं ।”
एक बार गाँधीजी पुणे में रुके हुए थे। उस समय हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार उनसे मिलने वहाँ पहुँचे । जैनेन्द्रजी ने एक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्र निकालने की इच्छा व्यक्त की । इससे पहले भी यह इच्छा उन्होंने व्यक्त की थी लेकिन गांधीजी ने उन्हें निरुत्साहित किया था ।
इस बार गांधीजी बोले : ‘‘अंग्रेजी क्यों, हिंदी क्यों नहीं ?”
जैनेन्द्रजी : ‘‘अंग्रेजी में बात उन तक पहुँचती है जिन तक उसे पहुँचना चाहिए ।”
गांधीजी तुरंत बोले : ‘‘इसीलिए तो कहता हूँ अंग्रेजी में नहीं, हिंदी में निकालो । बात जिन तक पहुँचनी चाहिए, हिंदी में ही पहुँचेगी ।”*
जैनेन्द्रजी : ‘‘तो आपकी अनुमति नहीं है ?”
गाँधीजी : ‘‘मेरी तो राय है, अनुमति अपने अंदर से ले लो । मैंने तो अपनी बात कह दी, निर्णय के लिए तुम स्वयं हो।”