एक बार संत कबीर जी ने एक किसान से कहाः “तुम सत्संग में आया करो।”
किसान बोलाः “हाँ महाराज ! मेरे लड़के की सगाई हो गयी है, शादी हो जाये फिर आऊँगा।”
लड़के की शादी हो गयी।
कबीर जी बोलेः “अब तो आओ।”
“मेहमान आते जाते हैं। महाराज ! थोड़े दिन बाद आऊँगा।”
ऐसे दो साल बीत गये। बोलेः “अब तो आओ।”
“महाराज ! मेरी बहू है न, वह माँ बनने वाली है। मेरा बेटा बाप बनने वाला है। मैं दादा बनने वाला हूँ। घऱ में पोता आ जाय, फिर कथा में आऊँगा।”
पोता हुआ। “अब तो सत्संग में आओ।”
“अरे महाराज ! आप मेरे पीछे क्यों पड़े हैं ? दूसरे नहीं मिलते हैं क्या ?”
कबीर जी ने हाथ जोड़ लिये।
कुछ वर्ष के बाद कबीरजी फिर गये, देखा कि कहाँ गया वह खेत वाला ?
दुकानें भी थीं, खेत भी था। लोग बोले : “वह तो मर गया !”
“मर गया।”
“हाँ।”
मरते-मरते वह सोच रहा था कि ‘मेरे खेत का क्या होगा, दुकान का क्या होगा ?’
कबीर जी ने ध्यान लगा के देखा कि दुकान में चूहा बना है कि खेत में बैल बना है ?
देखा कि अरहट में बँधा है, बैल बन गया है। उसके पहले हल में जुता था, फिर गाड़ी में जुता। अब बूढ़ा हो गया है।
कबीर जी थोड़े-थोड़े दिन में आते जाते रहे। फिर उस बूढ़े बैल को, अब काम नहीं करता..
इसलिए तेली के पास बेच दिया गया। तेली ने भी काम लिया, फिर बेच दिया कसाई को और कसाई ने ‘बिस्मिल्लाह !’ करके छुरा फिरा दिया। चमड़ा उतार के नगाड़ेवाले को बेच दिया और टुकड़े-टुकड़े कर के मांस बेच दिया।
कबीर जी ने साखी बनायीः–
कथा में तो आया नहीं, मरकर
बैल बने हल में जुते, ले गाड़ी में दीन।
तेली के कोल्हू रहे, पुनि घर कसाई लीन।
मांस कटा बोटी बिकी, चमड़न मढ़ी नगार।
कुछ एक कर्म बाकी रहे, तिस पर पड़ती मार।।
नगारे पर डंडे पड़ रहे हैं। अभी कर्म बाकी हैं तो उसे डंडे पड़ रहे हैं।
इसलिए मन को संसार में नहीं लगाना। नाव पानी में रहे, लेकिन पानी नाव में नहीं..