कंस-वध के बाद श्री कृष्ण तथा बलराम गुरुकुल में निवास करने की इच्छा से काश्यपगोत्री सान्दीपनी मुनि के पास गये, जो अवन्तीपुर (उज्जैन) में रहते थे। दोनों भाई विधिपूर्वक गुरु जी के पास रहने लगे।
श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध के 80वें अध्याय में अपने सहपाठी सुदामा से गुरु महिमा का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं-
“ब्रह्मन् ! जिस समय हम लोग गुरुकुल में निवास कर रहे थे, उस समय की वह बात आपको याद है क्या, जब एक दिन हम दोनों को हमारी गुरुपत्नी ने ईंधन (लकड़ियाँ) लाने के लिए जंगल में भेजा था।
उस समय हम लोग एक घोर जंगल में गये हुए थे और बिना ऋतु के ही बड़ा भयंकर आँधी-पानी आ गया था। आकाश में बिजली कड़कने लगी थी।
जब सूर्यास्त हो गया, तब चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा फैल गया था। धरती पर इस प्रकार पानी-ही-पानी हो गया कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ किनारा, इसका पता नहीं नहीं चलता था ! वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा प्रलय ही था। आँधी के झटकों और वर्षा की बौछारों से हम दोनों को बड़ी पीड़ा हुई, दिशा का ज्ञान न रहा। हम दोनों अत्यन्त आतुर हो गये और एक दूसरे का हाथ पकड़कर जंगल में इधर-उधर भटकते रहे।
जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनि को इस बात का पता चला, तब वे सूर्योदय होने पर हम दोनों को ढूँढते हुए जंगल में पहुँचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यन्त आतुर हो रहे हैं। वे कहने लगेः ‘आश्चर्य है, आश्चर्य है ! पुत्रों ! तुम दोनों ने हमारे लिए अत्यन्त कष्ट उठाया। सभी प्राणियों को अपना शरीर सबसे अधिक प्रिय होता है परन्तु तुम दोनों ने उसकी भी परवाह नहीं की …, हमारी सेवा में ही संलग्न रहे।