vashisthji ki divya drishti

जब राम को वनवास जाने का मौका आया तब सीता भी उनके साथ चलने को तैयार हो गयीं। उस समय ऋषि बोलेः “सीते! तुम वन में मत जाना और यदि जाना ही है, तो अपने आभूषण पहनकर जाना।”

उस समय देवांग नाम के एक नागरिक ने कहाः “आप ऐसी राय क्यों देते हैं? आप तो वन में विचरण करने वाले ऋषि हैं। आपको गृहस्थ जीवन में इस प्रकार रुचि लेने की क्या आवश्यकता है?”

वशिष्ठजी ने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और अपना आग्रह जारी रखा। यह देखकर देवांग उनके विषय में अनाप-शनाप बकता रहा। 

यह बात सर्वविदित है कि सीता आभूषण पहनकर वन में गयीं। वहाँ संकेत देने के लिए और राम को संदेश देने के लिए सीता की अंगूठी, केयूर (भुजदण्ड), कुण्डल और अन्य आभूषण किस प्रकार काम आये यह देखकर वशिष्ठजी की दीर्घदृष्टि की वन्दना किये बिना नहीं रहा जाता। 

लेकिन कुप्रचार फैलाने वाले अभागों ने महर्षि वशिष्ठ की निन्दा करने में कोई कमी नहीं रखी। योगवाशिष्ठ महारामायण में वशिष्ठजी महाराज ने कहाः “हे रामजी! मूर्ख लोग क्या-क्या बकते हैं, मुझे सब पता है लेकिन हमारा उदार स्वभाव है। हम क्षमा करते हैं। हे रघुनन्दन! संतों के गुणदोष न विचारना लेकिन उनकी युक्ति लेकर संसार-सागर से तर जाना।”

संत का वन में रहना अच्छा है किन्तु विनोबाजी के कथनानुसारः “यदि सभी संत वन में बस जाएँ तो इस संसार की क्या हालत हो जाए ? संतों को स्वार्थी नहीं बनना चाहिए। उनको अपने ज्ञान और प्रकाश का लाभ संसार को देना ही चाहिए। इस काम में यदि उनको थोड़ा कष्ट सहना पड़े, संसार का हल्ला-दंगा सहना पड़े तो भी उनको उसकी परवाह नहीं करनी चाहिए।”

संतजन संसार के झगड़ों का समाधान अपने तटस्थ भाव से कर सकते हैं। संसार के लोगों को संतों के वचन की अवगणना करना कठिन होगा। जो काम न्यायालय में फँसा हो, उसे संतजन एक पल में निपटा देते हैं। संत की शीतल वाणी संसारी लोगों के जले-गले हृदय पर विलक्षण प्रकार की शान्ति देती है। ऐसे संत इस नरकागार जैसे संसार में तीर्थधाम तुल्य है

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